आजादी के आंदोलन में सरगुजा के जंगल में शिक्षक बनकर छिपे थे राजेंद्र बाबू, यहां आदिवासी बच्चों को पढ़ाते थे

आजादी के आंदोलन में सरगुजा के जंगल में शिक्षक बनकर छिपे थे राजेंद्र बाबू, यहां आदिवासी बच्चों को पढ़ाते थे


रायपुर / डॉ. राजेंद्र प्रसाद 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा द्वारा सर्वसम्मति से आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति चुने गए थे। इसी दिन 1950 को ही जन-गण-मन को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया। बहुत कम लोगों को यह पता है कि राजेंद्र बाबू जब क्रांतिकारी थे, तब सरगुजा के जंगलों में शिक्षक बनकर छिपे थे। वे आदिवासी बच्चों को पढ़ाते थे। आजादी के बाद दिल्ली ही नहीं, बल्कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद की याद में सरगुजा में राष्ट्रपति भवन भी बनाया गया है।


पंडो व कोरवा जनजातियों को राष्ट्रपति ने दत्तक पुत्र बनाने की घोषणा भी यहीं की


डॉ. प्रसाद प्रथम राष्ट्रपति बने तब वे पुरानी यादों तो ताजा करने 1952 में छत्तीसगढ़ आए। वे सरगुजा में आदिवासियों के बीच भी गए। आदिवासियों की पंडो और कोरवा जनजातियों को राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र की घोषणा 22 नवंबर 1952 को यहीं से हुई थी। इसके लिए सरगुजा स्टेट के महाराजा रामानुजशरण सिंहदेव ने राष्ट्रपति से आग्रह किया था, जिसे उन्होंने तत्काल मान लिया था। स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के मुताबिक, स्वतंत्रता आंदोलन के वक्त सरगुजा स्टेट क्रांतिकारियों को छिपने के लिए शरण देता था। 


कांग्रेस और सरगुजा स्टेट दोनों की जंग का उद्देश्य एक था कि देश को आजाद कराना। इसी वजह से डॉ. प्रसाद को सरगुजा में आदिवासियों के बीच शरण दी गई थी। सरगुजा स्टेट ने कांग्रेस सम्मेलन के लिए को हाथियों पर रसद भेजी थी। इसी सम्मेलन में नेता जी सुभाषचंद्र बोस जीते थे। पुरानी यादों को ताजा करने राष्ट्रपति बनने के बाद डॉ. प्रसाद अंबिकापुर भी आए थे। वे पैलेस भी गए थे। तब उन्होंने तत्कालीन महाराजा रामानुज शरण सिंहदेव, जो प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री के दादा के साथ भी रहे। 


कैबिनेट मंत्री सिंहदेव बताते हैं कि जब पूर्व राष्ट्रपति डॉ. प्रसाद आए तो वे बहुत छोटे थे। बच्चा होने की वजह से वे यादें उनके  जेहन में धुंधली हैं। सिंहदेव कहते हैं कि डॉ. प्रसाद की याद में अंबिकापुर के पास दरिमा मार्ग पर एक स्कूल भी बनवाया गया था। यह भवन अब ध्वस्त गया है। पंडो नगर के पास एक पुल भी बनाया गया था जो अब गिर गया है। राष्ट्रपति भवन भी खपरे वाला है। यहां उनके नाम के पत्थर भी लगे हैं। इसके अलावा उदयपुर ब्लाक में एक कुंए पर भी उनका नाम लिखा है।


यादों को संजोए हैं लोग, जर्जर हो चुकी हैं निशानियां


इलाके के लोग जब भी इस राष्ट्रपति भवन को देखते हैं खुद को गौरवांवित महसूस करते हैं। ये भवन उनके लिए धरोहर की तरह है। मोहन सिंह टेकाम कहते हैं कि यह सुखद ही है कि देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद के व्यक्ति यहां आकर रहकर गए।
कई सालों से उपेक्षित : बताते हैं कि राष्ट्रपति भवन व उनके जुड़ी यादें कई सालों से उपेक्षित है। पंडो नगर के राष्ट्रपति भवन को छोड़कर बाकी दरिमा रोड का भवन का कुआं जर्जर हो चुका है। जिला प्रशासन ने इन स्मृतियों को बचाने में कोई रुचि नहीं दिखाई पड़ती। इस वजह से राष्ट्रपति के आने पर बनाया गया एक पुल गिर गया है।